कार्बन डाइआक्साइड के उत्पादन को कम करने के लिए जरुरी है जैविक ईंधन
जिस गति से वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्र बढ़ी है, वह 25 लाख वर्ष पहले दुनिया से आखिरी हिम युग खत्म होने के समय हुई वद्धि से 100 गुना अधिक है।
अच्छी बात है कि विकसित देशों का हृदय परिवर्तन हो रहा है और तय कर लिया है कि वह कार्बन डाइआक्साइड के उत्पादन को वातावरण में कम करने के लिए कोयले की परियोजनाओं से दूर रहेंगे। याद होगा कि गत वर्ष कोप 23 नाम के संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में ग्लोबल वार्मिग और वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए जैविक ईंधन के इस्तेमाल के लिए भारत समेत 19 देशों ने अपनी सहमति की मुहर लगाई। सम्मेलन के घोषणा पत्र में कहा गया कि पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिग दो डिग्री सेल्सियस से कम पर ही सीमित करने के लिए विकसित देशों को हर हाल में वर्ष 2030 तक कोयले से मुक्त होना होगा। बाकी दुनिया में कोयले का इस्तेमाल बंद करने को लेकर 2050 तक की समय सीमा निर्धारित की गई। उल्लेखनीय है कि जैविक ईंधन पर सहमति जताने वाले ये 19 देश दुनिया की आधी आबादी रखते हैं व अर्थव्यवस्था में इन देशों की वैश्विक हिस्सेदारी 37 प्रतिशत है। अगर 19 देश (भारत, अर्जेटीना, ब्राजील, कनाडा, चीन, डेनमार्क, मिस्र, फिनलैंड, फ्रांस, इंडोनेशिया, इटली, ब्रिटेन, मोरक्को, मोजांबिक, नीदरलैंड, पैरागुए, फिलीपींस, स्वीडन और उरुग्वे) जैविक ईधन के इस्तेमाल को बढ़ावा देते हैं तो ग्लोबल वार्मिग व वायु प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकेगा।
गौरतलब है कि जीवाश्म ईंधन में सबसे अधिक गंदे और प्रदूषित कोयले से अब भी विश्व की तकरीनब 40 प्रतिशत बिजली का निर्माण होता है। याद होगा जैविक ईंधन को बढ़ावा देने के लिए गत 10 अगस्त, 2016 को जैव ईंधन दिवस मनाया गया। यह दिवस प्रतिवर्ष गैर जीवाश्म ईंधन के प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से ही मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि डीजल इंजन के आविष्कारक सर रुदाल्फ डीजल ने 10 अगस्त, 1893 को पहली बार मूंगफली के तेल से यांत्रिक इंजन को सफलतापूर्वक चलाया और उन्होंने शोध के प्रयोग के बाद भविष्यवाणी की कि अगली सदी में विभिन्न यांत्रिक इंजन जैविक ईंधन से चलेंगे और इसी में दुनिया का भला है। विशेषज्ञों का कहना है कि बीते कुछ दशकों में जिस गति से वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्र बढ़ी है, वह 25 लाख वर्ष पहले दुनिया से आखिरी हिम युग खत्म होने के समय हुई वद्धि से 100 गुना अधिक है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक इससे पहले 30 से 50 लाख वर्ष पूर्व मध्य प्लीयोसीन युग में वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड 400 पीपीएम के स्तर पर पहुंचा था। तब सतह का वैश्विक औसत तापमान आज के समय से 2-3 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इसके चलते ग्रीनलैंड और पश्चिमी अंटाकर्टिका की बर्फ की चादरें पिघल गईं। इससे समुद्र का स्तर आज की तुलना में 10-20 मीटर ऊंचा हो गया था। 2016 की ही बात करें तो कार्बन डाइआक्साइड की वृद्धि दर पिछले दशक की कार्बन वृद्धि दर से 50 प्रतिशत तेज रही। इसके चलते औद्योगिक काल से पहले के कार्बन स्तर से 45 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड इस साल उत्सर्जित हुआ। 400 पीपीएम का स्तर हालिया हिम युगों और गर्म काल के 180-280 पीपीएम से कहीं अधिक है। उसका मूल कारण यह है कि 2016 में कोयला, तेल, सीमेंट का इस्तेमाल एवं जंगलों की कटाई अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। फिर अल नीनो प्रभाव ने भी कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में इजाफा करने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि समय-समय पर कार्बन उत्सर्जन की दर में कमी लाने का संकल्प व्यक्त किया गया लेकिन उसे मूर्त रूप नहीं दिया गया।
2015 में पेरिस जलवायु समझौते के तहत इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान वृद्धि को औद्योगिक काल से पहले के तापमान से दो प्रतिशत से कम रखना तय हुआ था लेकिन उसका पालन नहीं हुआ। गौर करें तो आज भारत-चीन जहरीली गैस सल्फर डाइऑक्साइड के शीर्ष उत्सर्जक देशों में शुमार हैं। सल्फर डाइऑक्साइड मुख्य रूप से बिजली उत्पादन के लिए कोयले को जलाने पर उत्पन होती है। इससे एसिड रेन और धुंध समेत स्वास्थ्य संबंधी कई समस्याएं जन्म लेती हैं। चीन ने भले ही सल्फर डाइऑक्साइड का उत्सर्जन अत्यधिक कम कर दिया है लेकिन वहां की हवा अभी भी जहरीली बनी हुई है। बीजिंग में धुंध और प्रदूषण की समस्या के पीछे शहर के पास स्थित कोयला आधारित फैक्टरी और उर्जा संयंत्र हैं। भारत की बात करें तो यहां पिछले एक दशक में सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। देश में 2012 में कोयला आधारित सबसे बड़े ऊर्जा संयंत्र की शुरुआत की गई लेकिन चीन की तरह उत्सर्जन रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए। यहां समझना होगा कि चीन में कोयले का इस्तेमाल 50 प्रतिशत और बिजली उत्पादन 100 प्रतिशत बढ़ा है। लेकिन इसके बावजूद भी चीन ने विभिन्न तरीकों से उत्सर्जन को 75 प्रतिशत तक घटाया है।
चीन ने वर्ष 2000 के बाद से ही उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तय करने और उत्सर्जन की सीमा घटाने के लिए कारगर नीतियों को अमल में लाना शुरू किया और वह इसमें काफी हद तक सफल भी रहा। भारत को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए सबसे बेहतरीन उपाय जैविक ईंधन का इस्तेमाल है। यह ऊर्जा का महत्वपूर्ण स्रोत है और इसका इस्तेमाल भी सरल है। इसका देश के कुल ईंधन उपयोग में एक-तिहाई का योगदान है और ग्रामीण परिवारों में इसकी खपत तकरीबन 90 प्रतिशत है। यह प्राकृतिक तौर से नष्ट होने वाला तथा सल्फर एवं गंध से मुक्त है। भारत में जैविक ईंधन की वर्तमान उपलब्धता तकरीबन 120-150 मिलियन मीट्रिक टन प्रतिवर्ष है जो कृषि और वानिकी अवशेषों से उत्पादित है और जिसकी ऊर्जा संभाव्यता 16 हजार मेगावॉट है। जैविक ईंधन जीवाश्म ईंधन की तुलना में एक स्वच्छ ईंधन है। यहां दोनों का फर्क समझना आवश्यक है। जीवाश्म ईंधन उसे कहते हैं जो मृत पेड़-पौधे और जानवरों के अवशेषों से तैयार हुआ जबकि जैव ईंधन उसे कहते हैं जो पृथ्वी पर विद्यमान वनस्पति को रासायनिक प्रक्रिया से गुजारकर तैयार किया जाता है। उदाहरण के लिए गन्ने के रस को अल्कोहल में बदलकर उसे पेट्रोल में मिलाया जाता है। या मक्का के दानों में खमीर उठाकर उससे ईंधन तैयार किया जाता है। इसके अलावा जैट्रोपा, सोयाबीन और चुकंदर इत्यादि से भी ईंधन तैयार किया जाता है। अच्छी बात यह है कि जैविक ईंधन कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण कर परिवेश को स्वच्छ रखता है। अगर इसका इस्तेमाल होता है तो इससे ईंधन की कीमतें घटती हैं और पर्यावरण को भी कम नुकसान होता है।
यही नहीं अगर भारत में कृषि क्षेत्र को जैविक ईंधन के उत्पादन से जोड़ दिया जाए तो किसानों का भला होगा। सरकार को जैविक ईंधन के इस्तेमाल को प्रचलन में लाने के लिए बढ़ावा देना चाहिए। गौरतलब है कि ब्राजील में जैविक ईंधन तैयार करने के लिए पेट्रोलियम उत्पादों में 22 प्रतिशत तक इथेनॉल मिलाया जाता है। अगर भारत भी ब्राजील की राह अख्तियार करे तो इससे कच्चे तेल के आयात में 22 प्रतिशत तक की कमी आएगी और इससे विदेशी मुद्रा को बचाया जा सकेगा। ऐसा नहीं है कि भारत जैविक ईंधन को लेकर तत्पर नहीं है। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति को 11 सितंबर-2008 को मंजूरी दी जा चुकी है। राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति में परिकल्पना की गई है कि जैव ईंधन यानी बायोडीजल व जैव इथेनॉल को घोषित उत्पादों के तहत रखा जाए ताकि जैव ईंधन के अप्रतिबंधित परिवहन को राज्य के भीतर और बाहर सुनिश्चित किया जा सके। जब तक इसे मूर्त रूप नहीं दिया जाएगा तब तक जैविक ईंधन के लक्ष्य को साधना कठिन होगा और ग्लोबल वार्मिग एवं वायु प्रदूषण से निपटने की चुनौती जस की तस बरकरार रहेगी।